हतई

‘हतई’ शब्द निमाड़ अंचल की बोली निमाड़ी का शब्द है. ‘हतई’ निमाड़ के गांवों में चौपाल की भांति एक ऐसा स्थान या चबूतरा होता है, जिसकी छत चार कॉलम या स्तम्भों पर टिकी होती है और प्रायः चारों और से खुली होती है. इस चौपाल या ‘हतई’ पर गांव के लोग शाम को इकट्ठे होकर गपशप करते है. गांव या घर-परिवार की समस्याओं पर चर्चा करते हैं. अपने सुख-दुःख की बातें करते हैं.

Monday, April 12, 2010

नईम: एक फक्कड़ फकीर का चले जाना

9 अप्रैल 2010 पहली पुण्यतिथि

मैं जब अस्पताल में उन्हें देखने पहुँचा तो संवाद की स्थिति खत्म हो गई थी। इस वार्ड में आम अस्पतालों की तरह भीड़-भाड़ या शोर नहीं था। मुझे लगा था, इसी ख़ामोशी की परतों के पीछे से सहसा वे निकलकर आयेंगे और जोर का ठहाका लगायेंगे और वार्ड में फैली ख़ामोशी को एक खिसियाहट में बदल देंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। आज सोचता हूँ तो ऐसा भी लगता है कि अस्पताल के उस वार्ड में फैला हुआ सन्नाटा उसी पराजित काल का आक्रोश था जो हमें डरा रहा था। समय का अपना एक अलग ठण्डा गुस्सा होता है। वह अपने क्रोध में आनंद की वसूली हमारी लाचारी से कर रहा था। मुझे इस बात का अचरज अभी तक है कि बीमारी के ऐसे घातक आक्रमण के बावजूद उनके चेहरे की ताजगी बरकरार थी। तीन महीने के मृत्यु से संघर्ष के कोई चिन्ह उनके चेहरे पर नहीं थे। इस पूरे समय में सिर्फ एक खामोश लाचारी थी जो चेहरे से नहीं आँखों के जल से प्रकट होती थी। मृत्यु के अंतिम दिनों की खामोशी में तो जैसे सारा जल भी सुख गया। फिर तो जैसे वे लाचारी भी प्रकट नहीं कर रहे थे। मृत्यु से अबोला प्रकट करने के लिए जैसे गहन खामोशी के अजान कुएँ में उतर गए। वहीं से मृत्यु की असमंजस भरी खामोश पदचाप को अस्पताल के सूने वार्ड में सुनते रहे होंगे।
असहज होती गंभीर बातों को वे मजाक में डाल देने का हुनर जानते थे। कई बरस पहले की बात है। मैं पत्नी और बच्चों के साथ देवास गया था। हम लोग नईमजी के घर बैठे थे। देश-दुनिया और साहित्य की बातें हो रही थीं। बच्चों को चुपचाप बैठा देखकर उन्होंने सहसा कहा, -‘‘मियाँ, अपने लेखक होने की सजा पत्नी और बच्चों को क्यों दे रहे हो ? देवास आए हो तो जाओ, इन्हें टेकरी पर माता के मंदिर ले जाओ। शाम का समय है घूमना हो जाएगा। यहाँ बैठकर इन साहित्य की बातों से इन्हें क्या लेना देना?’’ फिर ठहाका लगाकर हँसने लगे। फिर उन्होंने एक विनोद और किया। हमारे साथ प्रकाश को सपरिवार साथ भेज दिया। हम लोग पहाड़ी चढ़ कर ऊपर पहुँचे। प्रकाश और भाभी टेकरी पर पहुँचकर मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए। प्रकाश मुझसे कहने लगे, -‘‘जाओ, इन लोगों को भीतर मंदिर में भेज दो।’’ मैं जानता था प्रकाश पक्के मार्क्सवादी हैं। मंदिर के भीतर नहीं जाएगें। लेकिन मुझे नहीं पता था कि भाभी उनसे बड़ी ‘मार्क्सवादिनी’ है। वह तो मंदिर की ओर पीठ करके बैठ गई। आशा और बच्चे मंदिर से लौटकर आए तब तक प्रकाश मुझे जितना कोस सकता थे, कोस लिया। लौटकर हमलोग वापस नईमजी के घर ही आए। मैंने नईमजी से सारा किस्सा कहा। नईमजी ने कहा, -‘‘ये उसकी अपने पति के प्रति आस्था है। तुम्हारी कलई अपनी पत्नी के सामने खुल चुकी है।’’ कहकर वे हँसने लगे। मैंने कहा, -‘‘आस्था की बात तो और कठिन संकेत करती है।’’ उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आँखों से मुझे घूरा और कहा, -‘‘मियाँ, ज्यादा तर्क विकर्त मत करो। तुम्हें रात का खाना उसी के घर खाना है। तुम तो ठीक हो क्या पत्नी और बच्चों का पेट इन बातों से भर जाएगा? और जहाँ तक मेरी जानकारी है, प्रगतिशीलों का पेट भी सिर्फ बातों से नहीं भरता है।’’ और फिर जोर से ठहाका लगाया। बात बिल्कुल ठीक थी। इस समय प्रकाश हमारा अन्नदाता थे। उनके विचारों पर संदेह प्रकट करना हिमाकत थी। रोटी हमेशा बहस से बड़ी होती है। मैं तुरन्त चुप हो गया। नईमजी गंभीर चर्चा को व्यंग्य में रिड्यूज नहीं करते थे बल्कि उसका अनावश्यक तनाव खत्म कर देते थे।
आज नईमजी के जाने के बाद तमाम बातों को लेकर सोचते हैं तो सबकुछ अजीब सा लगता है। वे होते तो क्या इतना भावुक होने देते ? मुझे याद आता है बमुश्किल एक बरस पहले की बात होगी। हमारे यहाँ शहर में किसी बात को लेकर तनाव हो गया था और दंगा भी। सुबह-सुबह अचानक नईमजी का फोन आया, -‘‘कैसे हो ? अभी अखबार में तुम्हारे शहर में दंगे की खबर पढ़ी।’’ फिर अचानक उनकी आवाज बदल गई। बहुत ही बेचैन और तरल आवाज में बोले, -‘‘तुम ठीक तो हो बेटे ?’’ मैंने कहा, -‘‘मैं ठीक हूँ। हम सब ठीक हैं।’’ फिर कुछ और कहता तब तक उन्होंने फोन रख दिया था। मैं अचरज में पड़ गया। अजीब-सा लगा। इतने बरस हो गए इस तरह भीगी और डरी हुई आवाज में उन्होंने कभी बात नहीं की थी। फिर अपना भय अपनी आर्द्रता छिपाने के लिए फोन भी रख दिया। यही सोचकर मैंने तुरन्त वापस फोन नहीं किया। मैं भीतर से थोड़ा डर गया। उन्होंने आजतक कभी भी अपने वात्सल्य को इस तरह कमजोर आवाज में प्रकट नहीं किया था। मैं सोचने लगा था कि क्या सचमुच हम समय के इतने भयावह मुहाने पर आकर खड़े हो गए हैं कि वह नईम जैसे व्यक्ति को भी भयभीत कर दे। हालाँकि उनका यह भय खुद के लिए नहीं था। वे मेरे लिए चिंतित थे। उनकी यह चिंता मुझे चिंतित कर गई।
वे फोन कम करते थे। ज्यादातर तो चिट्ठियाँ लिखते थे। छोटी-सी, संक्षिप्त-सी या फिर बेहद लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ। गालिब का-सा अंदाजे-बयां। वही फक्कड़ता और जिंदगी की दुश्वारियों का मजाक उड़ाना। एक ही चिट्ठी में कुल-जहान की बातें। दे-समाज और साहित्य से लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति तक, सभी को उसी विनोद-प्रियता के अंदाज में लिखते थे। उनके अपने विश्लेषण थे। उनकी अपनी पड़ताल थी। पर उस दिन जो फोन आया, वह आवाज मैं आज तक नहीं भूल पाया। चिंता में डूबी डरी हुई आवाज। क्या वे मेरे शहर के दंगों से मेरे लिए डर रहे थे? मुझे लगा, मेरी चिंता के साथ उनकी चिंता में जो डर समाया था, वह दंगों की बढ़ती फितरत से था। पिछले कुछ बरसों में साम्प्रदायिकता का जिस तेजी और भयावहता से राजनीतिक इच्छाओं के चलते फैलाव हुआ है, वही बात उन्हें डरा रही थी। अपने मित्रों-परिचितों और ऐसे ही बने हुए रिश्तो के बीच उनकी जान बसती थी। वे अपनी इसी जान के लिए चिंतित थे। फोन रखने के बाद क्षण भर के लिए मुझे डर लगा फिर यह सोचकर थोड़ा अच्छा भी लगा; ख़ुशी भी हुई कि दूर किसी एक शहर में बैठे बुजूर्ग को मेरी चिंता है।
आज मुझे लगता है कि तमाम ठहाकों और जिंदादिली के बावजूद नईमजी इस विराट परिचय संसार या कहें रिश्तो के संसार की चिंता में ही अपनी जान जलाए जा रहे थे। अवचेतन में ऐसी बातों का एक बोझ तो बढ़ता है। अब भी लगता है कि किसी दिन रात के एकांत में यदि फोन जो बज नहीं रहा है फिर भी उठा लूँगा तो शायद उस दिन की अधूरी बात से आगे की बात शुरू हो जाएगी। पर बात शायद फोन पर अधूरी नहीं है। नईमजी उसे अधूरी छोड़कर अपनी अनकही में पूरा कर गए थे। और फिर स्मृतियों की एक पुकार है जहाँ वे ध्वनियाँ और स्वर एक अजीब-सी अनुगूँज में मौजूद है। मैं जानता हूँ, फोन नहीं आएगा। जो छूटा है वह पूरे जीवन में अधूरा छूटा रहेगा। पर कोई एक बात थी उस स्वर में, उस आवाज में जो इसे स्वीकार करने से रोकती है। तमाम व्यवहारिक तर्कों के बावजूद।
जीवन को इतना असीम प्रेम करने वाले व्यक्ति को जाने की कितनी जल्दी थी। सबकुछ जल्दी-जल्दी समेटा। जैसे वे मृत्यु के दिखावे से भी बचना चाहते थे। आज जब सोचता हूँ तो लगता है मृत्यु जीवन का इतना बड़ा सच नहीं है जितना जीवन। जीवन से बड़ा, सुन्दर और अलौकिक सच और क्या हो सकता है ? वे जीवन के इसी सच के हामीदार थे। अपने जीवन के अंतिम दिनों की गहरी खामोशी में भी उनका मन मृत्यु के सच को जैसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था। नईमजी की ही कविता की पंक्तियाँ हैं - हाथ की नाड़ियाँ/कल तक चलीं अच्छी-भली। / हो रहा है खामोश दिल। / क्या धड़कने सोने चलीं ? /मृत्यु की छाया तले सर छुपाने को / मन नहीं करता .......