हतई

‘हतई’ शब्द निमाड़ अंचल की बोली निमाड़ी का शब्द है. ‘हतई’ निमाड़ के गांवों में चौपाल की भांति एक ऐसा स्थान या चबूतरा होता है, जिसकी छत चार कॉलम या स्तम्भों पर टिकी होती है और प्रायः चारों और से खुली होती है. इस चौपाल या ‘हतई’ पर गांव के लोग शाम को इकट्ठे होकर गपशप करते है. गांव या घर-परिवार की समस्याओं पर चर्चा करते हैं. अपने सुख-दुःख की बातें करते हैं.

Saturday, September 4, 2010

धारावाहिकों में मां - सौन्दर्य का दुराग्रह

इधर पिछले कुछ अरसे से चल रहे टेलीविजन के धारावाहिकों पर नजर डालें तो एक अजीब-सा परिवर्तन नजर आएगा. विभिन्‍न चैनलों के अनेक धारावाहिकों में नायक या नायिकाओं की मां का पूरा बाहरी आवरण बदला जा रहा है. खासकर सौन्दर्यबोध को लेकर अति का आग्रह है. परिधान आधुनिक और खासे रंगीन हो गए हैं और मां की कमनीयता बढ़ गई है. उसकी सुंदरता का खयाल नायिका से जैसे अधिक रखा जा रहा है. कई धारावाहिकों में तो स्थिति यह है कि मां तो नायिका से ज्‍यादा सुंदर और आकर्षक है. सुंदर होना और बात है लेकिन उसे जिस तरह आकर्षक और उत्‍तेजक बनाया जा रहा है वह छिछोरापन लगता है. इसे मां की परम्‍परागत छवि तोड़ने के तर्क में रखकर भी नहीं बचा जा सकता है. बाजार में तमाम उफान और पॉप कल्‍चर के आवेग के बावजूद अभी बेटे द्वारा मां को, -‘’हाय, मां ! तुम कितनी सेक्‍सी हो’’ कहने की उद्दण्‍ड निर्लज्‍जता नहीं आई है. ऐसा इसलिए भी संभव नहीं है कि एलीट वर्ग के लिए भी भारतीय संस्‍कृति की दुहाई देने के लिए यही सुरक्षित कोना बचा है. वहां भी तमाम आधुनिकता के दबाव और क्‍लब संस्‍कृति के चलते भी संस्‍कारवान का प्रमाणपत्र लेने के लिए मां को परम्‍परागत रूप में सुरक्षित रखने से ही खुद की सुरक्षा देखी जाती है. इसी सुरक्षा कवच को तोड़ने के लिए इन धारावाहिकों में सुनियोजित तरीके से मां को आकर्षक नहीं उत्‍तेजक बनाकर उसकी परम्‍परागत गरिमा-छवि को ध्‍वस्‍त किया जा रहा है. उसकी देह में सेक्‍स-अपील पैदा की जा रही है. कुछ ऐसी व्‍यवस्‍था की जा रही है कि नायिका की अपेक्षा मां को देखकर दिल धड़के.

अंतर्राष्‍ट्रीय बाजार ने भारतीय अविवाहित लड़कियों को बिकाऊ एवं तथाकथित फैशनेबल वस्‍त्र के लोभ में डालकर परम्‍परागत वस्‍त्र छीन लिए हैं बल्कि उसे फैशन के कूड़ाघर में डाल दिया है लेकिन मध्‍यमवर्गीय विवाहित भारतीय स्‍त्री की साड़ी नहीं उतार पाया है. साड़ी का बाजार आज भी भारत में बल्कि अन्‍य एशियाई देशों में भी है. इसी बाजार को हथियाने के स्‍वप्‍न को पूरा करने में ये धारावाहिकों की मांएं जुटी हैं.

Sunday, June 20, 2010

संतत्व का बाजार

संत शिरोमणि परम पूज्य कहे जाने वाले, माने जाने वाले श्री सुधांशु महाराज पर धोकाधडी का केस दर्ज हो गया है| केस दर्ज हुआ है साथ ही गिरफ़्तारी का वारंट भी जारी हो गया है| धार्मिक प्रवचनों में बड़ी श्रद्धा के साथ नियमित हाजरी देने वाले भक्तों के लिए गहरे सदमे की खबर है| लेकिन वे खुद को और शंकालुओं को समझाने के लिए अनेक भावुक तर्क, संत को बदनाम करने की साज़िश के आवेश भरे आरोप खोज लेंगे| संत कहते हैं की मोक्ष के लिए मिट्टी, पत्थर, सोना और रुपया पैसा एक समान होता है| पर ये दूसरों को समझाने के लिए है| दूसरों के मन के पाप को मारने के लिए कहा जाता है| संत का मन जरा बड़ा पापी होता है| वह ऐसे भावुक तर्कों से परास्त नहीं होता है| संत दूसरों को जितना अधिक मोह से निकलने के लिए जोर लगाता है न्यूटन के गति के नियम के आधार पर विपरीत दबाव से खुद उतने ही जोर से पाप में धंसता जाता है| सुधांशु महाराज तो ऐसा उदाहरण है जो धोकाधड़ी की पकड़ाई में आ गया है ऐसे अनेक संत है जिनके अपराध कानून की पकड़ से बाहर है| इस उदाहरण से भिन्न सन्दर्भ में मीडिया में सुर्खियों में आई खबरों में संत आशाराम महाराज के भी अनेक किस्से पहले गुजरात तक सीमित थे अब पूरे देश में उनके नाम पर कालिख पुत रही है| धवल दाढ़ी कालिख में रंग गयी है| ज़मीन हड़पने से लेकर हत्या तक के कथित आरोप उन पर लगाए गए हैं| उनके आश्रम में बच्चे की मौत का मामला अभी तक जांच के घेरे में है|

पहले के संत मोक्ष का रास्ता खोजने जंगलों में चले जाते थे| सरकारी-दरबारी कैसी भी सुविधा या संपन्नता से परहेज पालते थे| अब के संत बड़ी-बड़ी महलनुमा कोठियों से निकल कर महँगी आयातित वातानुकूलित कारों में सवार होकर बाहर निकलते हैं| आधुनिक तकनालाजी से सुसज्जित जिसमें रोशनी और ध्वनि के लिए मंच पर कम्पुटरराइज्ड व्यवस्था रहती है| ऐसे वातानुकूलित मंच से प्रवचन देते हैं| मंत्रियों और अफ़सरों के आगे यही संत चापलूसी में झुक- झुक जाते हैं|

कभी संत मलूकदास ने कहा था,

-संतन को कहा सीकरी से काम

आवत-जावत पनहिया टूटी बिसरी गयो हरिनाम

तुलसीदास को भी जब अकबर बादशाह ने दरबारी बनने के लिए बुलाया था तो तुलसीदास ने भी कुछ ऐसा ही कहा था-

हम चाकर रघुवीर के, परो लिख्यो दरबार,

तुलसी अब का होहिंगे, नर के मनमबदार|

ईश्वर के प्रति ऐसी भक्ति, नैतिकता का ऐसा दबाव और संतत्व के प्रति ऐसा समर्पण अब ऐसे बाजार समय में दुर्लभ है. ५३ लाख रुपयों के लिए सुधांशु महाराज ने कथित धोखाधड़ी की.

ज़मीनों को हड़पने और आश्रमो में गैर कानूनी कार्यों के कथित आरोप आशाराम जी पर भी है| आशाराम जी को भी खुद को संत कहलाने का बड़ा शौक है| दरअस्ल आजकल का संत होना अपवाद को छोडकर लोभ या सुविधा-संपन्नता की चाहत तो है साथ ही यह एक मनोवैज्ञानिक रोग भी है| बगैर कोई परिश्रम किये, बगैर कोई उच्च शिक्षा के महज धार्मिक प्रवचन के अभ्यास के आधार पर आजकल हर कोई संत बनने के इस शार्टकट रास्ते पर निकल पड़ा है| छोटे बड़े संतो की बाड़ सी आ गयी है आयकर से चोरी की अकूत धन सम्पदा इस पेशे में आई है| मुर्ख,अपढ़ और पढ़े लिखे भावुक भक्तों की भीड़ जय जयकार करती रहती है| दो-चार धार्मिक प्रवचन रटना पड़ते है धर्म के मामले में कोई तर्क वितर्क की गुंजाइश भी नहीं होती है| कोई खड़ा होकर तर्क पूर्ण सवाल भी नहीं करता है| सिर्फ भक्ति की बातें करता है| समाजिक,सांस्कृतिक और साहित्य के क्षेत्र में प्रवचन या व्याख्यान देने के लिए जो विद्वता,अध्यन और दक्षता चाहिए ऐसे अनिवार्यता अक्सर धार्मिक प्रवचनों में नहीं रहती है|

भारत में यह धंधा न सिर्फ खूब फल-फूल रहा है बल्कि बहुत तेजी से देश के बाहर भी पैर पसार रहा है| यानि अब मामला डालर का हो गया है| धर्म को डालर की सवारी ज्यादा पसंद आ रही है| अनेक संतो के आलिशान दफ्तर है जहा सुन्दर रिसेप्शनिस्ट बैठती है| अनेक बड़े शहरों में दलाल हैं जो प्रवचन के लिए उनकी बुकिंग करते है, ऑनलाइन भी बुकिंग होती है| इनके भक्तों में बड़े सेठ और उद्योगपति होते है| ये उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञो के बीच की सशुल्क कड़ी भी होते है| भक्ति और धर्म के नाम पर सब कुछ होता है| अरबो खरबो का धंधा शान से चल रहा है| संतई के इस धंधे में बड़े बाज़ार की सम्भावना ने महिलाओ को भी आकर्षित किया है| अनेक कथित संयासिनियो ने इस क्षेत्र में कदम रखा है और खूब धन कूट रही है|शानदार सौंदर्य प्रसाधनों के माध्यम से जब मेकअप करके वे मंच पैर आती है तो सादे कपड़ो के बावजूद अनेक मनचलों के दिल के धड़कने बढ़ जाती है|सबसे बड़ी बात तो यह है की सेंसेक्स के उतार चढ़ाव से इस बाज़ार पैर कोई फर्क नहीं पड़ता है|

Monday, April 12, 2010

नईम: एक फक्कड़ फकीर का चले जाना

9 अप्रैल 2010 पहली पुण्यतिथि

मैं जब अस्पताल में उन्हें देखने पहुँचा तो संवाद की स्थिति खत्म हो गई थी। इस वार्ड में आम अस्पतालों की तरह भीड़-भाड़ या शोर नहीं था। मुझे लगा था, इसी ख़ामोशी की परतों के पीछे से सहसा वे निकलकर आयेंगे और जोर का ठहाका लगायेंगे और वार्ड में फैली ख़ामोशी को एक खिसियाहट में बदल देंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। आज सोचता हूँ तो ऐसा भी लगता है कि अस्पताल के उस वार्ड में फैला हुआ सन्नाटा उसी पराजित काल का आक्रोश था जो हमें डरा रहा था। समय का अपना एक अलग ठण्डा गुस्सा होता है। वह अपने क्रोध में आनंद की वसूली हमारी लाचारी से कर रहा था। मुझे इस बात का अचरज अभी तक है कि बीमारी के ऐसे घातक आक्रमण के बावजूद उनके चेहरे की ताजगी बरकरार थी। तीन महीने के मृत्यु से संघर्ष के कोई चिन्ह उनके चेहरे पर नहीं थे। इस पूरे समय में सिर्फ एक खामोश लाचारी थी जो चेहरे से नहीं आँखों के जल से प्रकट होती थी। मृत्यु के अंतिम दिनों की खामोशी में तो जैसे सारा जल भी सुख गया। फिर तो जैसे वे लाचारी भी प्रकट नहीं कर रहे थे। मृत्यु से अबोला प्रकट करने के लिए जैसे गहन खामोशी के अजान कुएँ में उतर गए। वहीं से मृत्यु की असमंजस भरी खामोश पदचाप को अस्पताल के सूने वार्ड में सुनते रहे होंगे।
असहज होती गंभीर बातों को वे मजाक में डाल देने का हुनर जानते थे। कई बरस पहले की बात है। मैं पत्नी और बच्चों के साथ देवास गया था। हम लोग नईमजी के घर बैठे थे। देश-दुनिया और साहित्य की बातें हो रही थीं। बच्चों को चुपचाप बैठा देखकर उन्होंने सहसा कहा, -‘‘मियाँ, अपने लेखक होने की सजा पत्नी और बच्चों को क्यों दे रहे हो ? देवास आए हो तो जाओ, इन्हें टेकरी पर माता के मंदिर ले जाओ। शाम का समय है घूमना हो जाएगा। यहाँ बैठकर इन साहित्य की बातों से इन्हें क्या लेना देना?’’ फिर ठहाका लगाकर हँसने लगे। फिर उन्होंने एक विनोद और किया। हमारे साथ प्रकाश को सपरिवार साथ भेज दिया। हम लोग पहाड़ी चढ़ कर ऊपर पहुँचे। प्रकाश और भाभी टेकरी पर पहुँचकर मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए। प्रकाश मुझसे कहने लगे, -‘‘जाओ, इन लोगों को भीतर मंदिर में भेज दो।’’ मैं जानता था प्रकाश पक्के मार्क्सवादी हैं। मंदिर के भीतर नहीं जाएगें। लेकिन मुझे नहीं पता था कि भाभी उनसे बड़ी ‘मार्क्सवादिनी’ है। वह तो मंदिर की ओर पीठ करके बैठ गई। आशा और बच्चे मंदिर से लौटकर आए तब तक प्रकाश मुझे जितना कोस सकता थे, कोस लिया। लौटकर हमलोग वापस नईमजी के घर ही आए। मैंने नईमजी से सारा किस्सा कहा। नईमजी ने कहा, -‘‘ये उसकी अपने पति के प्रति आस्था है। तुम्हारी कलई अपनी पत्नी के सामने खुल चुकी है।’’ कहकर वे हँसने लगे। मैंने कहा, -‘‘आस्था की बात तो और कठिन संकेत करती है।’’ उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आँखों से मुझे घूरा और कहा, -‘‘मियाँ, ज्यादा तर्क विकर्त मत करो। तुम्हें रात का खाना उसी के घर खाना है। तुम तो ठीक हो क्या पत्नी और बच्चों का पेट इन बातों से भर जाएगा? और जहाँ तक मेरी जानकारी है, प्रगतिशीलों का पेट भी सिर्फ बातों से नहीं भरता है।’’ और फिर जोर से ठहाका लगाया। बात बिल्कुल ठीक थी। इस समय प्रकाश हमारा अन्नदाता थे। उनके विचारों पर संदेह प्रकट करना हिमाकत थी। रोटी हमेशा बहस से बड़ी होती है। मैं तुरन्त चुप हो गया। नईमजी गंभीर चर्चा को व्यंग्य में रिड्यूज नहीं करते थे बल्कि उसका अनावश्यक तनाव खत्म कर देते थे।
आज नईमजी के जाने के बाद तमाम बातों को लेकर सोचते हैं तो सबकुछ अजीब सा लगता है। वे होते तो क्या इतना भावुक होने देते ? मुझे याद आता है बमुश्किल एक बरस पहले की बात होगी। हमारे यहाँ शहर में किसी बात को लेकर तनाव हो गया था और दंगा भी। सुबह-सुबह अचानक नईमजी का फोन आया, -‘‘कैसे हो ? अभी अखबार में तुम्हारे शहर में दंगे की खबर पढ़ी।’’ फिर अचानक उनकी आवाज बदल गई। बहुत ही बेचैन और तरल आवाज में बोले, -‘‘तुम ठीक तो हो बेटे ?’’ मैंने कहा, -‘‘मैं ठीक हूँ। हम सब ठीक हैं।’’ फिर कुछ और कहता तब तक उन्होंने फोन रख दिया था। मैं अचरज में पड़ गया। अजीब-सा लगा। इतने बरस हो गए इस तरह भीगी और डरी हुई आवाज में उन्होंने कभी बात नहीं की थी। फिर अपना भय अपनी आर्द्रता छिपाने के लिए फोन भी रख दिया। यही सोचकर मैंने तुरन्त वापस फोन नहीं किया। मैं भीतर से थोड़ा डर गया। उन्होंने आजतक कभी भी अपने वात्सल्य को इस तरह कमजोर आवाज में प्रकट नहीं किया था। मैं सोचने लगा था कि क्या सचमुच हम समय के इतने भयावह मुहाने पर आकर खड़े हो गए हैं कि वह नईम जैसे व्यक्ति को भी भयभीत कर दे। हालाँकि उनका यह भय खुद के लिए नहीं था। वे मेरे लिए चिंतित थे। उनकी यह चिंता मुझे चिंतित कर गई।
वे फोन कम करते थे। ज्यादातर तो चिट्ठियाँ लिखते थे। छोटी-सी, संक्षिप्त-सी या फिर बेहद लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ। गालिब का-सा अंदाजे-बयां। वही फक्कड़ता और जिंदगी की दुश्वारियों का मजाक उड़ाना। एक ही चिट्ठी में कुल-जहान की बातें। दे-समाज और साहित्य से लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति तक, सभी को उसी विनोद-प्रियता के अंदाज में लिखते थे। उनके अपने विश्लेषण थे। उनकी अपनी पड़ताल थी। पर उस दिन जो फोन आया, वह आवाज मैं आज तक नहीं भूल पाया। चिंता में डूबी डरी हुई आवाज। क्या वे मेरे शहर के दंगों से मेरे लिए डर रहे थे? मुझे लगा, मेरी चिंता के साथ उनकी चिंता में जो डर समाया था, वह दंगों की बढ़ती फितरत से था। पिछले कुछ बरसों में साम्प्रदायिकता का जिस तेजी और भयावहता से राजनीतिक इच्छाओं के चलते फैलाव हुआ है, वही बात उन्हें डरा रही थी। अपने मित्रों-परिचितों और ऐसे ही बने हुए रिश्तो के बीच उनकी जान बसती थी। वे अपनी इसी जान के लिए चिंतित थे। फोन रखने के बाद क्षण भर के लिए मुझे डर लगा फिर यह सोचकर थोड़ा अच्छा भी लगा; ख़ुशी भी हुई कि दूर किसी एक शहर में बैठे बुजूर्ग को मेरी चिंता है।
आज मुझे लगता है कि तमाम ठहाकों और जिंदादिली के बावजूद नईमजी इस विराट परिचय संसार या कहें रिश्तो के संसार की चिंता में ही अपनी जान जलाए जा रहे थे। अवचेतन में ऐसी बातों का एक बोझ तो बढ़ता है। अब भी लगता है कि किसी दिन रात के एकांत में यदि फोन जो बज नहीं रहा है फिर भी उठा लूँगा तो शायद उस दिन की अधूरी बात से आगे की बात शुरू हो जाएगी। पर बात शायद फोन पर अधूरी नहीं है। नईमजी उसे अधूरी छोड़कर अपनी अनकही में पूरा कर गए थे। और फिर स्मृतियों की एक पुकार है जहाँ वे ध्वनियाँ और स्वर एक अजीब-सी अनुगूँज में मौजूद है। मैं जानता हूँ, फोन नहीं आएगा। जो छूटा है वह पूरे जीवन में अधूरा छूटा रहेगा। पर कोई एक बात थी उस स्वर में, उस आवाज में जो इसे स्वीकार करने से रोकती है। तमाम व्यवहारिक तर्कों के बावजूद।
जीवन को इतना असीम प्रेम करने वाले व्यक्ति को जाने की कितनी जल्दी थी। सबकुछ जल्दी-जल्दी समेटा। जैसे वे मृत्यु के दिखावे से भी बचना चाहते थे। आज जब सोचता हूँ तो लगता है मृत्यु जीवन का इतना बड़ा सच नहीं है जितना जीवन। जीवन से बड़ा, सुन्दर और अलौकिक सच और क्या हो सकता है ? वे जीवन के इसी सच के हामीदार थे। अपने जीवन के अंतिम दिनों की गहरी खामोशी में भी उनका मन मृत्यु के सच को जैसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था। नईमजी की ही कविता की पंक्तियाँ हैं - हाथ की नाड़ियाँ/कल तक चलीं अच्छी-भली। / हो रहा है खामोश दिल। / क्या धड़कने सोने चलीं ? /मृत्यु की छाया तले सर छुपाने को / मन नहीं करता .......

Sunday, March 21, 2010

निमाड़: इतिहास और संस्कृति की धरोहर

निमाड़ में मिश्रित संस्कृति है। गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र का प्रभाव निमाड़ की बोली और संस्कृति पर काफी हद तक है। हालाँकि निमाड़ की संस्कृति को सबसे ज्यादा नर्मदा नदी ने ही प्रभावित किया है। पुरा संपदा के आधार पर नर्मदा घाटी की सभ्यता लगभग दो लाख वर्ष पुरानी है।

निमाड़ को अनूपदेश भी कहा गया है। मान्यता यह भी है कि अनूपदेश प्राचीनकाल के प्रमुख जनपदों में शामिल किया गया था। इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अनेक प्रमाण हैं। पुराणों में भी इसका उल्लेख है। कवि कालिदास कृत ‘रघुवंश’ महाकाव्य में विंध्यपाद में अनूपदेश का उल्लेख है जिसकी राजधानी माहिष्मति बताई गई है। सातवाहन महारानी गौतमी बालश्री के नासिक शिलालेख में अनूपदेश को उपरांत और विदर्भ देश के मध्य में स्थित भू-भाग बताया गया है।

जूनागढ़ शिलालेख में भी यही बात इस संदर्भ में उल्लेखित है कि अनूपदेश आकरावति एवं आनर्त देशों के मध्य में स्थित था। अभिधानचिंतामणि को आधार माने तो अनूप से जो अर्थ प्रकट होता है वह उस भू-भाग से है जो जल के निकट हो। हालाँकि इसका एक अभिप्राय और भी प्रकट किया गया है कि ऐसा भू-भाग जहाँ जल का बहाव निरंतर हो। अर्थात जल-प्रवाह की निरंतरता का अभाव न हो। महाभारत में उल्लेखित सागरानूपवासिन तथा सागरानूपकंठर्श्च तेच प्रांत निवासिनः भी दरअस्ल अनूपदेश की पश्चिमी सीमा को सागर के उपकण्ठ तक बताया गया है अर्थात् भरूच तक सूचित किया है। इसी तरह पुराणों में वर्णित माहिष्मति की स्थिति ऋक्ष पर्वत के निकट है। इसमें ऋक्ष से अभिप्राय मध्य विंध्य से है। कुछेक विद्वानों ने नर्मदानुप शब्द के निहितार्थ में अनूपदेश की पूर्वी सीमा नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक को स्वीकारा है।

महेष्वर में स्थित सहस्त्रधारा, अर्थात् जहाँ बहती हुई नर्मदा सहस्त्र धाराओं में विभक्त हो जाती है। इन स्थानों पर रेतीले घर मिलने पर डॉ. झाय ने इनका गहन अध्ययन किया था और अपने निष्कर्ष में बताया था कि यहाँ की जलवायु कभी बेहद खुश्क थी। लगभग दस से बारह हजार वर्ष के मध्य एक ऐसी संस्कृति का उद्भव और विकास हुआ जो अपनी परम्परा को तो आत्मसात करती आई किंतु समय की निरंतरता में बदले हुए संदर्भों में उसमें नित नवीन परिवर्तन करती गई।

मध्यप्रदेश के पश्चिम में स्थित निमाड़ अंचल का भूगोल भी बहुत ही अद्भुत है। निमाड़ के एक ओर विंध्य की ऊँची पर्वत श्रृंखला है और दूसरी ओर सतपुड़ा की सात उपत्यकाएँ हैं। इनके बीच में नर्मदा नदी प्रवाहित होती है। नदियाँ हमारी संस्कृति की प्राचीन और मूल्यवान पहचान है। एक तरह से यह संस्कृति का भी उद्गम है। नर्मदा नदी भी निमाड़ की संस्कृति का एक अमित और अभिन्न हिस्सा है।

रामायण काल हैहय वंशी कार्तवीर्यार्जुन माहिष्मती का राजा था। सहस्त्रार्जुन माहिष्मती का राजा था। सहस्त्रार्जुन उसकी उपाधि थी। वर्तमान महेश्वर में हैहय वंशी संस्कृति से संबद्ध परिवार हैं। बुनकर का कार्य करे हुए अंततः ये लोग मारू कहलाने लगे। महाभारत के संदर्भ में कुंतिभोज का उल्लेख है जो अवंति के राजा थे। इसका वर्णन नासिक की गुफाओं में वाशिष्ट पुत्र पुलुकावि के आकारवती के आसपास एवं जूनागढ़ के शासक रूद्रदामन के शुरूआती आलेखों में है। निमाड़ की संस्कृति को आसपास के प्रदेशों ने इसलिए भी ज्यादा प्रभावित किया क्योंकि माहिष्मती उत्तर और दक्षिण का संधि स्थल था। विजयाभिलाषी किसी भी राजा को नर्मदा नदी पार करना जरूरी हो जाता था। मुगल काल में बुरहानपुर नगर राज्य का दक्षिण द्वार था। सेनाओं के, राजाओं के पड़ाव नर्मदा किनारे माहिष्मती में रहते थे इसलिए जाने-अनजाने माहिष्मती तत्कालीन राजनीति के साथ ही संस्कृति को प्रभावित करने वाली केन्द्रीय नगरी हो गई थी। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. हंसराज सांकलिया ने महेश्वर के आसपास खुदाई में मिले अवशेषों के अध्ययन के बाद लिखा है- नावड़ाटवड़ी में 1943-54 एवं 1987 के बाद इस दिशा में कार्य हुआ था। डॉ. सुब्बाराव को एक टीले से बौद्ध स्तूप के अवशेष मिले थे जिससे महेश्वर की पुरातात्विक महत्ता एवं प्राचीनता के प्रमाण मिले। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्नेनसांग ने भी अपने यात्रा वर्णन में माहिष्मती का उल्लेख किया है। हालांकि पुरातत्ववेत्ता डॉ. वि.श्री. वाकणकर ने कतिपय वैज्ञानिक आधारों पर यह भी लिखा है कि आज के विंध्याचल और सतपुड़ा के बीच बहने वाली नर्मदा के स्थान पर कभी महासागर था। भू-गर्भीय परिवर्तनों के कारण विंध्याचल के शिखर ऊपर आ गए और सागर का लोप होता चला गया। पहले बागजीरा से गुजरात के छोटा उदयपुर तक सिकताष्म (एक किस्म का सफेद पत्थर) की उत्पत्ति हुई तो दूसरी तरफ पंचमढ़ी से सिवनी मालवा तथ गोडवन शैली में सिकताष्म पर्वत श्रंखलायें सामने आईं। इसी भूगर्भीय परिवर्तन ने सिवनी मालवा से धरमराय तथा आगे महाराष्ट्र में अजंता पर्वत मालाएँ और बीच में काफी नीचे जो हिस्सा बना, नीचे होने के कारण निमाड़ कहलाया। हालाँकि किंवदंतियों में निमाड़ के नामकरण के पीछे यहाँ नीम के पेड़ों की बहुतायत होना भी एक कारण बताया जाता है। निमाड़ में दाखिल होने वाला पहला मुगल शासक अलाउद्दीन था जिसने 1721 में इसका नाम निमाड़ प्रांत रखा। अलबत्ता ग्यारवीं शताब्दी में भारत यात्रा पर आए अलबरूनी ने इस प्रदेश को निमाड़ संबोधित किया है। निमाड़ का सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक वैभव मुगलकाल में अहिल्याबाई के शासनकाल में उभरकर आया। अहिल्याबाई ने इंदौर की अपेक्षा महेश्वर को राजधानी बनाया था। सुंदर घाट, किले का बड़ा रूप और लघु उद्योग को बढ़ावा देने के लिए बुनकरों की बसाहट की गई थी। 1767 से लेकर तीस वर्ष तक अल्यिाबाई ने निमाड़ और मालवा को अपने न्यायप्रिय शासन और कलाप्रिय दृष्टि से उन्नत बनाया। अहिल्याबाई के बाद वैसा कुशल शासक फिर होलकरों में नहीं हुआ।

सन् 1818 में होलकर अपनी राजधानी महेश्वर से इंदौर ले गए। इसके बाद निमाड़ राजनीतिक परिदृश्य में लगभग हाशिये पर रहा। खरगोन और मंडलेश्वर, निमाड़ को 1914 में दो जिला परगनों में विभाजित किया गया। 1956 में मध्यप्रदेश बनने पर पूर्वी निमाड़ और पश्चिम निमाड़ के दो जिलों का गठन किया गया। बाद में बड़वानी तहसील को पृथक से जिला घोषित किया गया। नर्मदा के नाभि केन्द्र नेमावर से लगाकर हरदा, हरसूद व होशंगाबाद का निमाड़ी संस्कृति से गहरा संबंध है। पौराणिक आख्यानों से लेकर ऐतिहासिक संदर्भ में नर्मदा एक अनिवार्य और पवित्र उपस्थिति है। इसी नर्मदा ने निमाड़ की कला और संस्कृति को भिन्न-भिन्न कारणों से प्रभावित किया। निमाड़ की अधिकांश लोक कथाओं और लोक गायन में नर्मदा देवी की भाँति, पुत्री की भाँति और माँ से लेकर सखी तक बनकर उपस्थित है। निमाड़ में व्रत-उपवास और तीज-त्यौहारों की इतनी अधिकता है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक एक धार्मिक और सांस्कृतिक अनुष्ठान के बगैर कुछ भी संभव नहीं है। आज के इस आपाधापी के युग में अंतर्राष्ट्रीय बाजार के आक्रमण ने संस्कृति को प्रभावित करना जरूर शुरू किया है फिर भी अचरज की भाँति सुदूर गाँवों में ये परंपराएँ जिंदा हैं। विवाह के ढोल-थाली के साथ नृत्य।

शिवरात्रि पर काठी नृत्य, रामलीला, गम्मत, भजन-कीर्तन ये आज भी अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई में लगे हैं। तीज-त्यौहारों पर भित्ति चित्र, सामूहिक गायन की परंपरा आज भी मौजूद है। मॉल संस्कृति के आगमन से पहले, अभी ज्यादा समय नहीं बीता है जब गाँवों में फागुन में चंग पर गाँव का गवैया थाप देता था तो पूरा माहौल संगीतमय हो जाता था। आदिवासी गाँवों में भगोरिया की मस्ती भी परवान चढ़ती है। गणगौर के झालरिये मन को भावुक कर देते थे। बेटी को विदा करना और फिर एक दिन धणियरराजा को मनाकर बेटी को रोकने के दृश्य और गायन गणगौर त्यौहारों में एक आत्मीयता भरकर पूरे गाँव को एक सूत्र में जोड़ने का अनूठा काम करते हैं। तमाम राजनीतिक विभाजन के बावजूद अधिकांश गाँवों में आज भी तीज-त्योहार सामूहिक मनाए जाते हैं इसलिए कहा गया है कि निमाड़ की लोक संस्कृति में लोक की समस्त शक्तियाँ विद्यमान हैं। लोक की परंपरा में समूचे जीवन के अर्थ आकार लेते हैं, यहाँ आकर अक्षर ज्ञान का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यहाँ संत सिंगाजी ने निमाड़ की वाचिक परंपरा को बहुत समृद्ध किया है। संस्कृति परिवर्तनशील होती है, उसमें नित नए अध्याय जुड़ते हैं। इसमें जहाँ जीवन की सकारात्मकता, संघर्ष और विकास जुड़ा होता है वह हिस्सा अमर होता है। यही बात निमाड़ की संस्कृति पर भी लागू होती है। अनावश्यक सारा कुछ नर्मदा में बहता जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों ने जिस तरह बाजार तैयार करके एक नई संस्कृति की बुनावट और बसाहट शुरू की है, निश्चित रूप से निमाड़ की संस्कृति भी उससे अप्रभावित नहीं रहेगी। निमाड़ ज्यादातर प्रकृति पर आश्रित है और कहा जाता है कि सृष्टि में मनुष्य श्रेष्ठ हो सकता है लेकिन सर्वश्रेष्ठ तो प्रकृति ही है। निमाड़ की संस्कृति की संवाहक, संरक्षक प्रकृति है इसलिए प्रकृति से इस तरह संबद्ध निमाड़ की संस्कृति को उसके अबोध होने में ही बचाया जा सकता है। जब तक निमाड़ में नर्मदा को माँ की तरह पूजने की आस्था और सत्कार का ठेठ निमाड़ी अंदाज बना रहेगा, उम्मीद की जा सकती है कि निमाड़ी संस्कृति अपनी संपूर्णता में इसी तरह बनी रहेगी।

Sunday, February 28, 2010

आत्मा नहीं, स्मृतियाँ अजर-अमर हैं......



१९९२ प्रगतिशील लेखक संघ का राज्य सम्मलेन, भोपाल
(बांये से मैं, ज्ञानरंजन, कमला प्रसाद और कुमार अम्बुज)

एक अकेला चित्र इतना ताकतवर होता है कि वर्तमान की आपाधापी और तनाव के भार को एक क्षण में हटाकर अतीत की उन स्मितियों में फ़ेंक देता है जिन्हें हम पीछे कहीं अकेले कमरे में छोड़ आये थे. ऐसा लगता है कि आत्मा नहीं, स्मृतियाँ अजर-अमर होती हैं. इन्हे न कोई शास्त्र काट सकता है न अग्नि जला सकती है. दुनिया की सबसे ताकतवर और पवित्र चीज स्मृतियाँ होती हैं. एक ऐसे blackboard पर जिसे न मिटाया जा सकता है और न बदला जा सकता है. अतीत की इन स्मृतियों को किसी भी तरह से कलुषित नहीं किया जा सकता है. स्मृतियाँ अपने होने में पवित्र होती हैं. दुनिया की सबसे मूल्यवान और पवित्र संपत्ति स्मृतियाँ ही होती हैं. रिश्तों को बचने के लिए स्मृतियों को बचाना होता है. स्मृतियाँ बची रहती है तो रिश्ते भी बचे रहते हैं. स्मृतियाँ हस्तांतरित होती हैं और विरासत की तरह सोंपी जाती है. स्मृतियों की चोरी नहीं होती है, और न इसके लूटे जाने का भय होता है. हमारी असावधानी में भी यह सुरक्षित रहती है...............
होली पर्व की शुभकामनाओं के साथ.......