हतई

‘हतई’ शब्द निमाड़ अंचल की बोली निमाड़ी का शब्द है. ‘हतई’ निमाड़ के गांवों में चौपाल की भांति एक ऐसा स्थान या चबूतरा होता है, जिसकी छत चार कॉलम या स्तम्भों पर टिकी होती है और प्रायः चारों और से खुली होती है. इस चौपाल या ‘हतई’ पर गांव के लोग शाम को इकट्ठे होकर गपशप करते है. गांव या घर-परिवार की समस्याओं पर चर्चा करते हैं. अपने सुख-दुःख की बातें करते हैं.

Saturday, September 4, 2010

धारावाहिकों में मां - सौन्दर्य का दुराग्रह

इधर पिछले कुछ अरसे से चल रहे टेलीविजन के धारावाहिकों पर नजर डालें तो एक अजीब-सा परिवर्तन नजर आएगा. विभिन्‍न चैनलों के अनेक धारावाहिकों में नायक या नायिकाओं की मां का पूरा बाहरी आवरण बदला जा रहा है. खासकर सौन्दर्यबोध को लेकर अति का आग्रह है. परिधान आधुनिक और खासे रंगीन हो गए हैं और मां की कमनीयता बढ़ गई है. उसकी सुंदरता का खयाल नायिका से जैसे अधिक रखा जा रहा है. कई धारावाहिकों में तो स्थिति यह है कि मां तो नायिका से ज्‍यादा सुंदर और आकर्षक है. सुंदर होना और बात है लेकिन उसे जिस तरह आकर्षक और उत्‍तेजक बनाया जा रहा है वह छिछोरापन लगता है. इसे मां की परम्‍परागत छवि तोड़ने के तर्क में रखकर भी नहीं बचा जा सकता है. बाजार में तमाम उफान और पॉप कल्‍चर के आवेग के बावजूद अभी बेटे द्वारा मां को, -‘’हाय, मां ! तुम कितनी सेक्‍सी हो’’ कहने की उद्दण्‍ड निर्लज्‍जता नहीं आई है. ऐसा इसलिए भी संभव नहीं है कि एलीट वर्ग के लिए भी भारतीय संस्‍कृति की दुहाई देने के लिए यही सुरक्षित कोना बचा है. वहां भी तमाम आधुनिकता के दबाव और क्‍लब संस्‍कृति के चलते भी संस्‍कारवान का प्रमाणपत्र लेने के लिए मां को परम्‍परागत रूप में सुरक्षित रखने से ही खुद की सुरक्षा देखी जाती है. इसी सुरक्षा कवच को तोड़ने के लिए इन धारावाहिकों में सुनियोजित तरीके से मां को आकर्षक नहीं उत्‍तेजक बनाकर उसकी परम्‍परागत गरिमा-छवि को ध्‍वस्‍त किया जा रहा है. उसकी देह में सेक्‍स-अपील पैदा की जा रही है. कुछ ऐसी व्‍यवस्‍था की जा रही है कि नायिका की अपेक्षा मां को देखकर दिल धड़के.

अंतर्राष्‍ट्रीय बाजार ने भारतीय अविवाहित लड़कियों को बिकाऊ एवं तथाकथित फैशनेबल वस्‍त्र के लोभ में डालकर परम्‍परागत वस्‍त्र छीन लिए हैं बल्कि उसे फैशन के कूड़ाघर में डाल दिया है लेकिन मध्‍यमवर्गीय विवाहित भारतीय स्‍त्री की साड़ी नहीं उतार पाया है. साड़ी का बाजार आज भी भारत में बल्कि अन्‍य एशियाई देशों में भी है. इसी बाजार को हथियाने के स्‍वप्‍न को पूरा करने में ये धारावाहिकों की मांएं जुटी हैं.

Sunday, June 20, 2010

संतत्व का बाजार

संत शिरोमणि परम पूज्य कहे जाने वाले, माने जाने वाले श्री सुधांशु महाराज पर धोकाधडी का केस दर्ज हो गया है| केस दर्ज हुआ है साथ ही गिरफ़्तारी का वारंट भी जारी हो गया है| धार्मिक प्रवचनों में बड़ी श्रद्धा के साथ नियमित हाजरी देने वाले भक्तों के लिए गहरे सदमे की खबर है| लेकिन वे खुद को और शंकालुओं को समझाने के लिए अनेक भावुक तर्क, संत को बदनाम करने की साज़िश के आवेश भरे आरोप खोज लेंगे| संत कहते हैं की मोक्ष के लिए मिट्टी, पत्थर, सोना और रुपया पैसा एक समान होता है| पर ये दूसरों को समझाने के लिए है| दूसरों के मन के पाप को मारने के लिए कहा जाता है| संत का मन जरा बड़ा पापी होता है| वह ऐसे भावुक तर्कों से परास्त नहीं होता है| संत दूसरों को जितना अधिक मोह से निकलने के लिए जोर लगाता है न्यूटन के गति के नियम के आधार पर विपरीत दबाव से खुद उतने ही जोर से पाप में धंसता जाता है| सुधांशु महाराज तो ऐसा उदाहरण है जो धोकाधड़ी की पकड़ाई में आ गया है ऐसे अनेक संत है जिनके अपराध कानून की पकड़ से बाहर है| इस उदाहरण से भिन्न सन्दर्भ में मीडिया में सुर्खियों में आई खबरों में संत आशाराम महाराज के भी अनेक किस्से पहले गुजरात तक सीमित थे अब पूरे देश में उनके नाम पर कालिख पुत रही है| धवल दाढ़ी कालिख में रंग गयी है| ज़मीन हड़पने से लेकर हत्या तक के कथित आरोप उन पर लगाए गए हैं| उनके आश्रम में बच्चे की मौत का मामला अभी तक जांच के घेरे में है|

पहले के संत मोक्ष का रास्ता खोजने जंगलों में चले जाते थे| सरकारी-दरबारी कैसी भी सुविधा या संपन्नता से परहेज पालते थे| अब के संत बड़ी-बड़ी महलनुमा कोठियों से निकल कर महँगी आयातित वातानुकूलित कारों में सवार होकर बाहर निकलते हैं| आधुनिक तकनालाजी से सुसज्जित जिसमें रोशनी और ध्वनि के लिए मंच पर कम्पुटरराइज्ड व्यवस्था रहती है| ऐसे वातानुकूलित मंच से प्रवचन देते हैं| मंत्रियों और अफ़सरों के आगे यही संत चापलूसी में झुक- झुक जाते हैं|

कभी संत मलूकदास ने कहा था,

-संतन को कहा सीकरी से काम

आवत-जावत पनहिया टूटी बिसरी गयो हरिनाम

तुलसीदास को भी जब अकबर बादशाह ने दरबारी बनने के लिए बुलाया था तो तुलसीदास ने भी कुछ ऐसा ही कहा था-

हम चाकर रघुवीर के, परो लिख्यो दरबार,

तुलसी अब का होहिंगे, नर के मनमबदार|

ईश्वर के प्रति ऐसी भक्ति, नैतिकता का ऐसा दबाव और संतत्व के प्रति ऐसा समर्पण अब ऐसे बाजार समय में दुर्लभ है. ५३ लाख रुपयों के लिए सुधांशु महाराज ने कथित धोखाधड़ी की.

ज़मीनों को हड़पने और आश्रमो में गैर कानूनी कार्यों के कथित आरोप आशाराम जी पर भी है| आशाराम जी को भी खुद को संत कहलाने का बड़ा शौक है| दरअस्ल आजकल का संत होना अपवाद को छोडकर लोभ या सुविधा-संपन्नता की चाहत तो है साथ ही यह एक मनोवैज्ञानिक रोग भी है| बगैर कोई परिश्रम किये, बगैर कोई उच्च शिक्षा के महज धार्मिक प्रवचन के अभ्यास के आधार पर आजकल हर कोई संत बनने के इस शार्टकट रास्ते पर निकल पड़ा है| छोटे बड़े संतो की बाड़ सी आ गयी है आयकर से चोरी की अकूत धन सम्पदा इस पेशे में आई है| मुर्ख,अपढ़ और पढ़े लिखे भावुक भक्तों की भीड़ जय जयकार करती रहती है| दो-चार धार्मिक प्रवचन रटना पड़ते है धर्म के मामले में कोई तर्क वितर्क की गुंजाइश भी नहीं होती है| कोई खड़ा होकर तर्क पूर्ण सवाल भी नहीं करता है| सिर्फ भक्ति की बातें करता है| समाजिक,सांस्कृतिक और साहित्य के क्षेत्र में प्रवचन या व्याख्यान देने के लिए जो विद्वता,अध्यन और दक्षता चाहिए ऐसे अनिवार्यता अक्सर धार्मिक प्रवचनों में नहीं रहती है|

भारत में यह धंधा न सिर्फ खूब फल-फूल रहा है बल्कि बहुत तेजी से देश के बाहर भी पैर पसार रहा है| यानि अब मामला डालर का हो गया है| धर्म को डालर की सवारी ज्यादा पसंद आ रही है| अनेक संतो के आलिशान दफ्तर है जहा सुन्दर रिसेप्शनिस्ट बैठती है| अनेक बड़े शहरों में दलाल हैं जो प्रवचन के लिए उनकी बुकिंग करते है, ऑनलाइन भी बुकिंग होती है| इनके भक्तों में बड़े सेठ और उद्योगपति होते है| ये उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञो के बीच की सशुल्क कड़ी भी होते है| भक्ति और धर्म के नाम पर सब कुछ होता है| अरबो खरबो का धंधा शान से चल रहा है| संतई के इस धंधे में बड़े बाज़ार की सम्भावना ने महिलाओ को भी आकर्षित किया है| अनेक कथित संयासिनियो ने इस क्षेत्र में कदम रखा है और खूब धन कूट रही है|शानदार सौंदर्य प्रसाधनों के माध्यम से जब मेकअप करके वे मंच पैर आती है तो सादे कपड़ो के बावजूद अनेक मनचलों के दिल के धड़कने बढ़ जाती है|सबसे बड़ी बात तो यह है की सेंसेक्स के उतार चढ़ाव से इस बाज़ार पैर कोई फर्क नहीं पड़ता है|